Thursday, October 1, 2009

जमीं

इक बूंद गिरी..
जमीं सहम गई..
पर फ़डफ़डाके
आलस निगल गई ..

जो झूमी है उसके बाद..
अंग अंग महक गया ..
उस सावले यौवन का,
मीठा चस्का लग गया..

कही कलियां चुनी..
कही फ़सलें बुनी..
जो राह मे मिला,
उसकी फ़रयाद सुनी..

सब रुप है उसके ..
चंचल, अल्हड..
कहर भी वही ढाए ..
सहर भी वही लाए..

आज तृप्त होके
उसने जो डकार भरी
शायद बादल गडगडाए.
कही लगा बिजली गिरी...