
दिल ढूंढता है , फ़िर वही होस्टेल के रात दिन
बैठे रहे आलस-ए-बहाना किए हुए
मेस की सर्द रोटी और कच्चे चावल लेकर
गले पे सिंचकर भरे पानी के ग्लास को
निकल पडे मेसवाले को गाली देते हुए
या एक्झाम्स की रात जो नाईट मारना चले
ठंडी उदास बूक्स को रटे देर तक
यारों के संग पढते रहे रूम पर पडे हुए
शर्मिली सर्दियों मे, किसी भी कॉर्नर पर
बातों मे गुंजती हुई खामोशियां सुने
आंखों मे दो चमकीले से सपने लिए हुए
-- अभिजित ...
1 comment:
सुरेख विडंबन .
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