Tuesday, October 7, 2008

दिल ढूंढता है , फ़िर वही होस्टेल के रात दिन

गुलजारांची एक अतिशय सुंदर रचना , दिल ढूंढता है .. फ़िर वही फ़ुरसत के रात दिन .. होस्टेल चे काही क्षण त्या शब्दांमधे गुंफ़ण्याचा एक प्रयत्न .... त्यांनाच हे विडंबन(?) अर्पण ... ...

दिल ढूंढता है , फ़िर वही होस्टेल के रात दिन
बैठे रहे आलस-ए-बहाना किए हुए

मेस की सर्द रोटी और कच्चे चावल लेकर
गले पे सिंचकर भरे पानी के ग्लास को
निकल पडे मेसवाले को गाली देते हुए

या एक्झाम्स की रात जो नाईट मारना चले
ठंडी उदास बूक्स को रटे देर तक
यारों के संग पढते रहे रूम पर पडे हुए

शर्मिली सर्दियों मे, किसी भी कॉर्नर पर
बातों मे गुंजती हुई खामोशियां सुने
आंखों मे दो चमकीले से सपने लिए हुए

-- अभिजित ...

1 comment:

आशा जोगळेकर said...

सुरेख विडंबन .