Tuesday, May 1, 2012

बयाँ


क्या ना लिखा.. फिर भी लगता है कुछ न लिखा..
कितनी सारी साँसे दबा के रखी है सीने मे,
हँसती खेलती.. गुमसुम सी ,गुमनाम सी..
दबे दबे ठहाको मे पहाड़ो की गूँज सी..
इन्ही ख़यालात को पालपोस के कुछ अल्फ़ाज़ सीँचे है मैने..
उसी रेशमी स्याही से नम हुए है दिल के कागज..
नब्ज़ थम जाएगी तभी ये नमी सुर्ख होगी..
शायद तब भी ये लगे, कुछ साँसे और चाहिए मेरे बयाँ के लिए.

अभिजीत - २९-०२-२०१२

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