Friday, December 19, 2008

रफ़ू-ए-दिल

कितना भी करूं दिल पे काबू नही होता
खुद के सिवा किसीसे गुफ़्तगू नही होता

अनसुने अनदेखे जख्म काफ़ी है छुपे हुए
आखों से बहनेवाला क्या लहू नही होता?

किस किस कोने मे सिलवाउं दिल को
वो दर्जी तो कहता है अब रफ़ू नही होता

जलती बुझती आंखों मे है ख्वाबों के दिये
रोशन करे उन्हे,ऐसा कॊई जादू नही होता

मौत से ख्वामख्वाह डरते रहते है सब लोग
अकेली जिंदगी से बडा कोई उदू नही होता

(उदू - enemy )

न जाने कैसे गम ढलते जाते है शब्दोंमे
मै भी कहां शायर होता गर तू नही होता

3 comments:

Straight Bend said...

Chhan aahe re ...

1 Doubt.
Guftagoo stree-lingi aahe ki pullingi?

Roopam

Abhijit Galgalikar said...

are ho kharach.. streelingi watat aahe vichar kela tar ... chukala mag bahutek te ...
tula kay watata ? :)

अभिजीत दाते said...

किस किस कोने मे सिलवाउं दिल को
वो दर्जी तो कहता है अब रफ़ू नही होता

मौत से ख्वामख्वाह डरते रहते है सब लोग
अकेली जिंदगी से बडा कोई उदू नही होता

न जाने कैसे गम ढलते जाते है शब्दोंमे
मै भी कहां शायर होता गर तू नही होता

bahot khub..!