Monday, February 11, 2008

कुछ चंद अल्फ़ाज..

खुदकेही खून से सजे ये अल्फ़ाज है
बडा बावरा सा इनका मिजाज है

गाए खुशियों के गीत
गझल जैसी वो प्रीत
गुलशन हमारा आशियाना था
जश्न का रोज नया बहाना था
अब जाने कहा गुम हुआ, ये साज है
खुदकेही खून से...

महफ़िलों की, शान थे हम
कई दिलो की, जान थे हम
भीड मे भी पहचाने जाते थे
बडे दूर से दिवाने आते थे
अब दिखाई देता, भिखारन सा अंदाज है
खुदकेही खून से...

तू ही थी दिल की जूस्तजू
हर ख्वाब मे बसी आरजू
सपनो का रोज नया दौर चला था
दुख कब का, पिछे छोड चला था
लौटा फ़िरसे सरपे, वो कबाडी ताज है
खुदकेही खून से...

न जाने कब रब रूठा
न जाने कब सब छुटा
मंजिलो का मै मुंतजिर रह गया
हर रास्ता मुझे काफ़िर कह गया
खोजता हू तकदिरों का क्या राज है
खुदकेही खून से...

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