Wednesday, June 4, 2008

आज कल ख्वाब भी नये है

आज कल ख्वाब भी नये है
किसी ने अभी अभी बोये है
क्यू जगा रहे हो हमे यारों
कुछ चंद पल ही तो सोये है

पलकोंके आसपास कहीं
एक जगह वो खास कहीं
वहीं छुपे कुछ हमसाये है....
आज कल...

आकाश जितना ऊंचा ख्वाब
जमींसे है उम्दा सिंचा ख्वाब
खुशी से बादल भी रोये है...
आज कल...

धुंधला सा कोहरा हल्का सा
बूंद बूंद सपना छल्का सा
रोज इसी मोड पे खोए है...
आज कल...


--- अभिजित गलगलीकर ..... ४-६-०८ .....

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