Sunday, June 22, 2008

In response to deepa's poem ...

इस घर को सजाऊं किस किस तरह
अपनासा लगने लगे, फ़िर जा सको तो जाइयेगा

हवाओं का रुख यूं ना मोड सकोगे तुम
मेरे साथ जरा बहो, फ़िर जा सको तो जाइयेगा

साहिल पे लहरे भी है , ढलता सूरज भी
मुझमे पैर भिगो लो, फ़िर जा सको तो जाइयेगा

तुम्हारी मेरी डगर शायद अलग अलग हो
किसी मोड पे मिलेंगे, फ़िर जा सको तो जाइयेगा

अल्फ़ाजों के खेल मुझको शायद नही आते
आखों से रोक लू, फ़िर जा सको तो जाइयेगा

No comments: